मनुष्यता

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  • मनुष्यता

    • शिवशंकर बोले, उमा कहूं मैं अनुभव अपना, संत और हरि भजन अपना बांकी सब है सपना.

      व्यतिरेक व बिकृति है सांसारिक अभिन्न अंग, हरि कथा हरि चर्चा है विशेष प्रसंग.

      आततायियों ने की हत्या-बलात्कार नृसंस, तोड़े मंदिर, जगत विध्वंस, और काटे अंग प्रत्यंग.

      अब तो हे सनातनी तुमने तो की उन्हें भी शर्मिंदा, काटे बकरे मंदिर प्रांगण और लगाए भोग उनके आँगन.

      राम नाम के नाम पर गाये तू अक बक, बक बक , संत व कथाकार धर्माधिकारी आकर सत्संग.

      यह जगत तो कल भी था, है आज भी, रहेंगे निरंतर, पर थे ना तू कल, आज हो, कल क्या पता, रहो अपने अंदर बनकर सदानंद.

      प्रवेश होता है जनाब कपटी का भंग हो जब अपनापन, कलह पैदा कर भ्रम फैलाकर करते अपने को प्रसन्न.

      किन्तु फल है मिलते इनको, संतान लम्पट और आपदा क्रंदन.

      उत्तम उपचार है प्रेम भाव और आपसी मिलन करके मुक्त अपने स्वजन.

      सभी सुख पावेंगे, शांत धरती और मन, प्रेमास्त्र सूत्र को धारण कर जन जीव होंगे संपन्न.

      जन प्रतिनिधि भी होंगे सज्जन, कर पाएंगे न जनमत दुरूपयोग बनने को दुर्जन.

      नैतिकता के पृष्टभूमि पर जी पायेंगे सब कर ह्रदय प्रशन्न.

      जिम्मेदारी राष्ट्र नीति, भोजन-शिक्षा और भवन, जन मानस और कर्मवीर हैं जगत के कर्म प्रधान.

      कर्म क्षेत्र है बहुतायत तत्पर देश की प्रजातंत्र और विधान.

      पिछड़ चुके हैँ क़ृषि सिंचाई निर्धन होते सजग किसान.

      करु व्यवस्था राष्ट्र नीति अंतर्गत, सरकारीकरण हो क़ृषि प्रधान.

      भूमि अर्पण करें राष्ट्र को किराया बिक्री और भूमिदान.

      मुक्त होकर भूमि से करे सेवा अर्पण मनोयोग हुनर दर्शन.

      अन्न उत्पादन संगठित हो क़ृषि कार्यशाला और नियोजन.

      ब्यभिचार भ्रष्टाचार-नशा देह ब्यापार उन्मूलन

      अनुशासन, अंकुश और देखभाल संपन्न हो कार्य निष्पादन.

      होना है शिक्षा प्रवल, स्वास्थ्य जागरण सुन्दर अन्तरमनोदशा.

      पर्यावरण प्रकृति पोषण, पर्वत नदी की हो वैश्विक दिशा.

      व्यक्ति परिवार समाज देश, विश्व के हैँ अभिन्न अंग.

      इकाई दहाई लाख ही नहीं, अरबों मे हैँ मानव प्रसंग.

      जीव जंतु सभी हैँ मानव के अभिन्न अंग.

      संरक्षण इनके और पर्यावरण, है अति महत्वपूर्ण बंध.

      पवन तनय संकट हरण, मंगल मूरति रूप, राम लखन सिता सहित ह्रदय बसहुँ सुरभुप.

      गाय है उच्च प्रकृति में मानव से भी भिन्न अपवाद स्वरूप.

      जिनके होते प्रकृति प्रतिकूल विसर्जन, होते निरोगी निर्मल औषध स्वरुप.

      वनस्पति मे उत्तम होते तुलसी, संवर्धक अति गुणी औषध देवी स्वरुप.

      अब तो बस नारी है जिनकी लीला न्यारी है, अति धैर्यवान माता स्वरुप.

      पुरुष को देती दर्जा पुत्र, भ्राता पति और पिता ब्रह्म स्वरुप.

      नारी तो है प्रकृति प्रतिनिधि, बन जाती असामान्य परिस्थिति में प्रतिकूल.

      घर अंधेरा बाहर निराशा, निर्बल पुत्र और पति नर्बोतल.

      पवन तनय बल पवन सामना, बुद्धि विवेक विज्ञान निधाना.

      जगत जननी जानकी मां, हर परिस्थिति में है सबल, करे न कोई मजबूर.

      पृथिवी पुत्री बन आदर्श कन्या, स्वरुप है नंदिनी, पत्नी और माँता नूर.

      मयूर कार्तिक वाहन वैरी-शिवशंकर गले में नाग.

      गणपति वाहन मूषक बने साँसारी आहार – शिव के गले में नाग.

      शिव के सवारी नंदी बैल जिनके वैरी माँ के वाहन शेर.

      अध्यात्म जगत में रहते ये सभी बनकर यार, विचरण करते साथ रहते सेवा तत्पर एक परिवार.

      देखा हमने एक संसार, स्थापित नारायण उपासना और उत्सव.

      भोजन तामसिक प्रमादी जीवन, करे न कोई ईश के करतव.

      चढ़ाये बलि सांसारिक मान, कर हत्या देवी के नाम.

      भोग लगाए जन मानस में, खाये पकाकर बकरा मांस.

      मुंह में राम बगल में छुरी, चाल है बिपरीत देव के नाम.

      निज स्वरुप है मंदिर प्यारा, आधार पृथिवी पर गंगा धारा.

      उन पर आसीन गायत्री न्यारा, गौ माँता है ह्रदय हमारा.

      गौ किरण सूर्य बीच गीता ज्ञान अद्भुत संसारा.

      भानु कृष्ण आभामंडल, सर्वोच्च अमर है तुलसी प्यारा.

      परम ब्रह्म पाद अंगुष्ठ बूंद नीज सहस्रार, ठहरे ललाट ब्रह्म कमंडल सूर्य प्रकाश.

      शिवशंकर जटा नीज कंठ बसे ज्ञान गंगा, गौमुख हृदयंगम प्रेमास्पद भक्ति अति सुखद संसार.

      गायत्री अग्नि मणिपूरक, शक्ति स्वरुप प्रखर पुंज कमल.

      निर्मल निर्झर पवित्र गंगा, स्वाधिष्ठान निर्गमन निश्छल जलप्रपात कलकल.

      प्राण सींचन निसर्ग हरिहर, थमे सागर मूल पृथिवी गोद के तल.

      जन्म जन्मांतर भ्रमण चराचर, द्विपाद नीज अखंड ब्रह्माण्ड.

      असीम निर्बंध क्षेत्र मनोवेग, गति जनमानस सहित जीव संकल्प ब्रह्म दंड.

      हरि सम जग कछु आयाम नहीं, प्रेम पंथ सम पंथ, सद्गुरु सम सज्जन नहीं, गीता सम नहीं ग्रन्थ.

      गणपति ॐ कार है माँ मकार, लक्ष्मीनारायण अलौकिक मात-पितु अविकार.

      हृदयँगम सिताराम मातु-पिता लौकिक, हनुमान हुंकार.

      लखन है काका सत्य की ललकार.

      ॐ नमो भगवते वासुदेवाय है सृष्टि की पुकार.

      श्री कृष्ण ब्रज बृन्दावन राधा संग विश्व निखार.

      तुलसी मूल बसे शालिग्राम नीज सहस्रार.

      शिव निर्गुण सुषुम्ना नीज स्वरुप निराकार.

      ललाट केंद्र शक्ति उद्गम, नासिकाग्र गणेश अलंकार.

      ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय.

      सम्मलित सब एक मिलकर, स्वरुप है मेरा गुण साकार.

      जनमानस जीव समस्त जड़ चेतन अखिल ब्रह्माण्ड है अपना श्रृंगार.

      मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरुद्वारा या मठ, नीज अस्तित्व का मान बढ़ाओ, यही है सब में सत्य.

      शस्त्र उठाओ परशुराम बन, करो आततायी का अंत, शांत होकर ध्यान लगाओ निश्चिन्त नारायण.

      नोच डालो, फाड़ डालो, ध्वस्त करो स्तम्भ उदंड, नृसिंह बन कूद जाओ, समर्पित समाज अंग प्रत्यंग.

      शास्त्र अध्ययन कर शिक्षा प्रसार, जैसे आदर्श वशिष्ठ संदीपन,

      बदल डालो अमानवीय समाज को, करो ह्रदय शांत संयम, महावीर बुद्ध ने जगाए जैसे अलख विश्व में आनंद.

      नीज में सब है, सब में है अविनाशी एक, उद्देश्य एक है मूल है एक, है यही सार्थक निर्द्वन्द.

      है न अब कोई आने वाला अविकारी अवतार, आप ही बनाओ अपने को सगुन निरंतर साकार.

      जप तप योग ध्यान समाधि कर, अस्त करो अंधकार, भूख प्यास बिलास मिटाकर, संयमित करो संतान संस्कार .

      पुत्री को योग्य बनाओ, पुत्र को संस्कारी, सैद्धांतिक मूल को करो व्यावहारिक, स्त्री अग्र हो पुरुष भारी.

      सिताराम राधेश्याम लक्ष्मीनारायण और दुर्गा त्रिशूलधारी.

      पुत्री को सम्मानित शुभ विदा करो, पुत्रवधु गृह अधिकारी.

      कंटक न हो दृष्टि में, भेद हटाओ कुटुंब नारी, पारदर्शिता आधार है पारिवारिक स्तम्भ, संतुलन हो अति न्यारी,

      चोरी वैमनस्य वैश्यावृति गंध है, हत्या बलात्कार जघन्य पाप.

      सभी दिशाओ में सन्देश फैलाओ, कर परिवर्तन अधोगति से उर्ध्व निष्पाप.

      नारी जहाँ अपमानित होता, पतन वहां पर निश्चित जान.

      वासना मूल में है, कायरता कामुकता लोभ, विकारी अविवेकी चाल.

      बाप को कहते धत तेरे की, माँ बनते ज्ञान विज्ञान.

      माँ से बाप है, बाप से माता, कर सह सम्मानित उचित जान.

      तेरा देश है, तेरा संसार, हर जीव को अपना जान.

      संयम को आधार बनाकर, प्यार को व्यवहार बनाकर, सम्वेदनशीलता का रखो मान.

      संभव है वैश्विक नेतृत्व, बन जगतगुरु हम सब करे निदान.

      दूसरो में दाग लगाकर न बन जाओगे संस्कारीजन.

      दूसरों का धन मिटाकर ना बन पाओगे धनवान.

      सामने को मुर्ख बनाकर भी तुम न बन पाओगे विद्वान.

      अन्न का जैसे उत्पादन, बिना मिटाकर धन और अन्न.

      वैसे ही हर क्षेत्र में बिना क्षति के संभव है भण्डारण.

      गलत मान्यता को, गलत सलाहों को ख़ारिज कर. स्वनुभूति को करो अपना मार्गदर्शन.

      मीराबाई राणा के मध्य थी उथल पुथल और भाव भंवर.

      लाई बीच दिवार बनाकर कृष्ण सर्वस्व, नृत्य भाव और संगीत संवर.

      नारी, तुझे क्या पड़ी संसार बीच पीस पीस कर, मर मर कर.

      सर्वेश्वर-परमेश्वर कण कण भासित नारी और नर.

      संबल उसे तू कर प्रेमाश्रु, चल अचल, पुरुषार्थ ह्रदय बसाकर.

      दाहक पावक शीतल निर्मल, सुख है दुख है संसार महासागर.

      पार इसे कर निर्द्वन्द अनासक्त, निर्भय मृत्यु रहित भवसागर.

      बचा कौन माया भंवर से स्पर्श रहित, जनजीवन, चिरंजीवी, और अवतार.

      यह जगत निर्दयी है, सरल नहीं, ईश बिन न कोई आधार.

      नव रत्न, नव द्वार मानव के, ऊर्ध्वगमन, संचार, विसर्जन और ग्रहण.

      सर्वोपरि है, सर्वोत्तम समस्त संसार जीवों में मानव तन.

      फिर कब मिलने बाला यह तन, जब ना हो धरम करम और परमात्म धन.

      आत्म निर्भर, आत्म सुख, आत्मसाक्षात्कार, जब मार्ग में हो आत्म निरिक्षण.

      कर प्रवेश, किसी गली, मार्ग, महामार्ग, यात्रा सफल जब सुनिश्चित है स्वमंदिर तन.

      स्त्री-पुरुष आयाम है पूर्ण, संयम, संगम, विहंगम और अखंड ब्रह्म निरंजन.

      प्रकृति सह पुरुष जीवित रहे वर्तमान, प्रसस्त कर भविष्य मार्गदर्शन.

      है मेरा ब्रह्म-बदरी वर्तमान, छूकर अन्य सभी भूत विकराल.

      मेधावी विश्व विजयी मेधांश सह जलते भूखंड पर हिम विशाल.

      खंडन कर कुनीति, दुरूपयोग, निश्चित कर विकसित सुयोग्य काल.

      शिक्षा स्वास्थ्य क़ृषि आधुनिक, नियोजन और आत्म निर्भरता हो बर्तमान काल.

      पतन पुरुष का कह नहीं सकते, चरित्र नारी का समझ नहीं सकते.

      आरम्भ दुराचार पत्नी से करते, पतन दुराचार संतान ही सहते.

      घर में दुर्जन को भर कर तबेला बनाते, लम्पटों की खेती करते.

      माँ बाप की न इज्जत करते, स्त्रीजन को अपमानित करते.

      मलिन मनोबल बढाकर समाज कलंकित करते, अति पतन हो अध्यात्म को ठगते.

      बनाकर मंदिर ईश्वर स्थापित करते, बिना भजन विपरीत चाल चलते.

      यह न स्थिति साधारण, समाधान अविलम्ब, अलौकिक साधन.

      अध्यात्म अपराध के लिए अंत है साधन, जैसे उद्धार किये राम ने रावण.

      मंदिर समाधान है स्व तन साधन, नियम धरम करम ही है जीवन.

      यह संभव है अति साधारण, करिये न विलम्ब, रहिये टनाटन.

      समाज सुगन्धित होंगे, विकास उर्ध्व गमन, आप अपने भी होंगे पतित पावन.

      आनंदित रहेंगे परिवार सह माँ पिता पत्नी संतान, आपके दर्शन से होंगे अन्य भी चरित्रवान.

      पुरुष विवेकी नारी सुन्दर, आत्म निर्भरता आपके अंदर, कर जगत अति निहाल.

      पति परायण पत्नी से शांत और आदर्श समाज, जिससे होते हैं दैविक परिणाम.

      जो यह कहते, मेरा धर्म मेरा समाज, तेरा धरम नहीं किसी काम.

      आप कहो मेरा धर्म सभी समाज, सबका कल्याण, सभी के काम.

      जब उठाए आप पर हथियार, संकल्प करो अस्त्र प्रतिकार.

      जब कोई लुटे आपका धन, कैदी बनाओ उनके मन.

      जब लगे संशय बलात्कारी नियत, करो संकल्प दंड विकल्प.

      तुम्हे मिला है सिद्धांत और ज्ञान, करो तुम व्यावहारिक निदान.

      रहे न कोई बचने बाला, एक एक को करो सावधान.

      नर नारी का मान बढ़ाओ, गौ सेवा जग में फैलाओ.

      आततायी का करो तुम अंत, दैविक चेतना भरो अनंत.

      बिना विनिमय न मानव व्यापार प्रसंग, विनिमय रहित न संसाधन.

      अन्य प्राणी केवल प्रकृति अनुलग्न, मानव के लिए केवल विधि और धर्म.

      मानव को अति संसाधन, बिष अमृत क्लेष विवेक धन और अन्न.

      सिताराम सिताराम काका लक्ष्मण जय हनुमान.

      हर व्यक्ति हैं विशेष न जनसाधारण, लुढ़क जाते प्रकृति के गोद में मार्ग पतन.

      दुलारते हैं, प्यार करते, करते पुरुषार्थ खूब जतन, वह कौन है भार्या जो रोक सके उनके पतन.

      बिना नारी के संभव भी नहीं ब्रह्मचर्य जीवन, कर शून्य से ऊपर जहाँ नहीं हैं पतन.

      स्थिति शून्य की है मानवता से बाहर, निम्न स्तर शून्य से सचमुच है पतन.

      नारी तो वश चेतना है, जो उद्गम ब्रह्म से होकर गंगा पवित्र निर्मल.

      कर विश्राम ब्रह्म कमंडल और जटाशंकर, गौमुख की धार निर्झर कल कल.

      समा जाती सागर पृथिवी गोद में, सींच कर जीव जन-जीवन.

      हे मानव, तू रख लाज एक ही ईश्वर ब्रह्म की, उन्मुख होकर उनके चरण कमल.

      हिन्द हैँ हम सब जगत में द्वार भारत, हितकर नैतिक दैविक देश.

      मूल है सबके ब्रह्म एक, बिभिन्न होकर भी विचार और भेष.

      अंतरिक्ष में है गृह नक्षत्र तारे अनेक, उद्गम सभी के होते हैं स्वकेन्द्रित ब्रह्म-विशेष.

      आत्म सम्मान प्रथम प्रदान हैं, कर सकोगे अभिषेक अन्य को मिटाकर क्लेष.

      स्वाभिमान अंतहीन कलश है आपके जीवन प्रकाश, सरल है तभी अनंत ब्रह्म-प्रवेश.

      समझ आये जब आत्म ज्ञान जीवन उद्देश्य, परमात्मा तत्पर होंगे उद्धार आपके जीवन शेष.

      आयाम बहुत है, विधि अनेक, मिटा दिए जनमानस थक हार कर जीवन अवशेष.

      ज्ञान-कर्म-भक्ति प्रमुख है गीता सन्देश, कर अभ्यास तू भी अति उत्साहित बन भवेश.

      बोले शिवशंकर, हे नर नारी, आत्म विश्वास जागकर जीत लो जग सारी.

      Sheoshankar P Deo
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